रिश्ते सिमट रहे हैं यूँ लाश को कांधा देने तक
कुछ तो सफर में साथ हैं सिर्फ कुछ लेने तक
कौन अपना कौन पराया पहचानना कठिन है
कि नोंच लेना चाहते हैं सब एक-एक डेने तक
फड़फड़ाके शांत होना तो है मगर उससे पहले
क्या बताऊं कितनी दिक्कत है यहाँ जीने तक
उड़ना चाहा था मेरे पर नुच गए तो रेंगना पड़ा
क्या केंचुए-सा रेंगता ही रहूंगा अब मरने तक
इंतज़ार करो पखेरुओं में नए पंख उग जाएंगे
तुम अभी ख़ामोश रहो बेहतर कुछ करने तक
- कंचन ज्वाला कुंदन
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