आज मेरी फिर से एक नई कविता पेश है
उद्योग धंधे टाइप का बाबागिरी बिजनेस है
बाहर से संन्यासी और अंदर से संसारी ही
आश्रम के भीतर भी तो राग द्वेष क्लेश है
ग्राउंड फ्लोर पे प्रभुजी और टॉप पे टपाटप
हवस के भूखे भेड़ियों का गजब साधु भेष है
बार-बार मिलेगा बेल, बलात्कारी बाबा को
क्या बताऊँ कितना कि महान मेरा देश है
ब्लैक-वाइट के खेल में चट्टू बने हैं नेताजी
कल खोलूँगा पोल-पट्टी जो रह गया अवशेष है
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