सदियों से, बरसों से
और आज तक
बहस जारी है
कौन कर रहे हैं बहस
जिनके पेट भर चुके हैं
खाना हजम करने
बौद्धिक जुगाली चल रहा है
सदियों से, बरसों से
और आज तक
कभी राम पर बहस
कभी रहीम पर बहस
कभी ईसा पर बहस
कभी मूसा पर बहस
कभी पूछते हैं
पत्थरों पर प्राण प्रतिष्ठा कैसे होता है
कभी कहते हैं
सांप-बिच्छुओं में भगवान क्यों हैं
तुम्हारी बात सच भी होगा
कड़वा भी होगा
यथार्थ भी होगा
मगर उससे फर्क क्या पड़ा
तुम जुगाली किये
और जाकर सो गए
फर्क तो तब पड़ता
जब मैं और तुम
हाथ मिलाकर
कंधे मिलाकर
रोटी बांटते
विचार बांटते
जिन्हें इनकी जरूरत है
उस पर बहस करते
शायद कुछ ठोस नतीजा
जरूर निकल आता
फर्क तो तब पड़ता
जिन बातों को तुम चुनौती देते हो
उसे स्वीकार करते पूरी तरह
नास्तिक होने का प्रमाण
दे आये हो मंच पर
घर में देवी-देवताओं की
प्रतिमाओं पर
फूल की मालाएं सजी हैं
फिर तुझमें और मुझमें
फर्क क्या रहा
तुम सच्चाई जानकार भी
उसे मानते हो अधूरा ही
मैं बनावटी आस्था में
उसे पूरा मानकर
जानने की कोशिश कर रहा हूँ
उसे और भी करीब से
मगर इससे भी फर्क क्या
वो तुम्हारे घर में है पत्थर में है
सांप में है बिच्छू में है
या मेरे दिमाग में है
नहीं भी हो तो ना रहे
हों भी तो कहीं भी हो
इन सबके बावजूद भी
सब वहम ही तो है
सब भ्रम ही तो है
हमने इस धरातल पर किया क्या
जहर ही तो फैलाये
जो नहीं है उस पर बहस करते रहे
जो है उन बातों का ध्यान नहीं रहा
सच-सच बताओ तुम
कितने रोटी बांटे हो
कौन है जो तेरे विचार पर
चल रहा हो अक्षरशः
ना तुमने रोटी बांटा
ना तुम विचार रोप पाए
मुझे लगता है
सिर्फ जहर घोलने आये हो
पानी में, शहद में,
मौसम में, समाज में
घोलकर चले जाओगे तुम
नए अंकुर को, नए पौध को
नए नस्ल को, नई पीढ़ी को
पीना पड़ेगा जहर घूंट-घूंटकर
मैं ये बात भी जानता हूँ
तुम भी बड़े कमीने निकलोगे
ठीक से घोल देते जहर तो
पीकर मर ही जाते हम सब
तुम मीठा जहर घोलोगे
क्योंकि तुम देखना चाहते हो
हम सबको धीरे-धीरे मरते हुए...
- कंचन ज्वाला कुंदन
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