बुधवार, 4 सितंबर 2024

तुम हो तो गिनती के, मगर बहुमत है तुम्हारा ही

कविता छोटी है मगर व्याख्या बहुत लम्बी है... 


हर जगह- 
तुम ही तुम हो 
जल में तुम हो 
थल में तुम हो 
नभ में तुम हो 
और हम कहाँ हैं
कहीं नहीं...  

सभी सरकारी दफ्तरों में 
तुम हो 
सभी सरकारी अफसरों में 
तुम हो 

हर निजी संस्थानों में 
हुकूमत है तुम्हारा ही 
तुम हो तो गिनती के 
मगर बहुमत है तुम्हारा ही 


लोकतंत्र का हर पाया 
तुम्हारा है 
हमारा क्या है
कुछ नहीं...


हर जगह 
तुम्हारा ही 
एकक्षत्र राज है 
हर जगह स्वघोषित 
आरक्षित है तुम्हारे लिए

इसके बावजूद 
मुझसे कुढ़ते हो 
मुझ पर हँसते हो 
विरोध भी करते हो 
मेरे खिलाफ... 

जबकि 
मैं जी नहीं रहा 
घूंट रहा हूँ
भीतर ही भीतर 
हर जगह तुम्हारे साथ... 

तुमने मजबूर कर रखा है मुझे 
इस घुटनभरी जिंदगी के लिए 
तुमने सदियों से सताया है मुझे 
और सिलसिला आज भी जारी है...
बदस्तूर..., बदस्तूर..., बदस्तूर...

- कंचन ज्वाला कुंदन

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