खून-पसीना झलकता है शब्दों में आके
मैदान में भी उतरना पड़ता है जाके
तू सच लिखता तो खून की खुशबू आती
आक्रोश ही उतरता स्याही में समाके
तू मोहब्बत लिखता तो सराबोर हो जाता
मैं शब्दों में डूब जाता आक्रोश भुलाके
तेरे शब्दो में महक ही नहीं तेरे जीने की
केवल ढाल रहा है इसे टकसाल बिठाके
तू कविताएं लिखता तो मैं पढ़ता जरूर
तू उत्पादित कर रहा है इसे फैक्ट्री लगाके
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