मंगलवार, 23 अक्टूबर 2018

जीने का मोह है ना मरने का डर है

जीने का मोह है ना मरने का डर है
प्रदूषित समाज है प्रदूषित शहर है

शहर ने बख्शी है जिंदगी भीख की तरह
पूरा शहर चिल्लाता है जिंदगी कहर है

पानी भी यहाँ कहाँ मिलता है साफ-सुथरा
पानी भी विषाक्त है धीमा जहर है

अब लगने लगा है लोगों को वो गांव में ही ठीक था
अरे कहाँ आ गए सब ये कैसा शहर है

कोल्हू की बैल की तरह घूम रहे हैं लोग सारे 
जिन्हें खबर ही नहीं क्या दिन-रात क्या दोपहर है

शुद्ध हवा तक बचा नहीं जीने के वास्ते
जितना भी साँस लो सबका सब जहर है

वाहनों की धूल चिमनियों की धुआं
इसीलिए चिलचिलाती लू की लहर है

- कंचन ज्वाला कुंदन 

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