सलवार भी उठाओ कभी
सुराख़ भी दिखाओ कभी
बहुत बीता ख़्वाब की रात
हक़ीकत में भी आओ कभी
मुंतजिर हूँ तेरे दीदार का
होंठों की प्यास बुझाओ कभी
सुराख़ भरने का जिम्मा सौंपकर
बस निढाल सो जाओ कभी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें