अखबार को बेआबरू औरत मानता हूं मैं
हां यह दो रुपए में बिकता है जानता हूं मैं
मेरे शहर की हर घटना की नुमाइश करती है ये
मगर अधनंगी औरत है इसे पहचानता हूं मैं
लोगों को शौक है इसके बदन को खुली देखने का
पर ये कभी पूरी बदन नहीं खोलेगी मानता हूं मैं
कभी 'इसके' हाथों कभी 'उसके' हाथों बिकती रहेगी
अरे ये चीज ही बिकाऊ है जानता हूं मैं
हां ये कभी आजादी के लिए कूद पड़ी थी मेरे साथ
पहले चंडी थी आज रंडी है पहचानता हूं मैं
- कंचन ज्वाला कुंदन
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें