रविवार, 23 अक्टूबर 2016

भौंरे से जीना सीखा


मैं तो जा ही रहा था
ये मत पूछना कि कहाँ

किन्तु राह में एक
गुलाब के पौधे को देख

मरने के बुरे विचार से झिझक गया
मैं वहीँ ठिठक गया

देखा की भौंरें आज भी
गुलाब के इर्द- गिर्द मंडरा रहे हैं

क्योंकि उन्हें आशा है
बीता बहार जरूर आएगा

मन फिरा मैं फिर गया
वहीँ से मैं मुड़ गया

और जिंदगी को...
एक नए सिरे से जीने लगा

- कंचन ज्वाला 'कुंदन'

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