शुक्रवार, 28 अक्टूबर 2016

मुकद्दर के सिर्फ इशारे होते हैं


  • अनजाने रिश्ते भी प्यारे होते हैं
  • जितने नए उतने  न्यारे होते हैं

  • जिन्हें छूटना था छूट जाता है 
  • तुम्हें मिला जो तुम्हारे होते हैं

  • जो चाहते हैं पाते नहीं , जो मांगते हैं मिलता नहीं 
  • किस्मत  भी अजीब हमारे होते हैं

  • कहाँ से कहाँ पहुँच जाते हैं लोग 
  • वक्त के कैसे नज़ारे होते हैं 

  • तुम हर पल तैयार रहो 'कुंदन' 
  • मुकद्दर के सिर्फ इशारे होते हैं 

  • - कंचन ज्वाला 'कुंदन' 

बुधवार, 26 अक्टूबर 2016

टूट जाते हैं बहुत लोग संभल नहीं पाता है हर कोई

तुम सचमुच में चाहते हो अमन तो वापस गांव चल दो
इस दुनिया में नहीं है अमन का शहर कोई

काँटों का, अंधेरों का और भी बहुत डर है सफर में
ये जान लो की बिना डर का नहीं डगर कोई

लड़खड़ाने का दौर चलता है हरेक की जिंदगी में
टूट जाते हैं बहुत लोग संभल नहीं पाता है हर कोई

भटकने का दौर अक्सर होता ही ऐसा है
कोई हो जाता है बेघर , पहुँच जाता है अपना घर कोई

तुम्हारा भी नाम फलक पर सितारा बनकर चमके
अरे! तू भी तो 'कुंदन', काम ऐसा कर कोई

- कंचन ज्वाला 'कुंदन'

जो आज भी तने-तनहा है 'कुंदन'


  • जिंदगी का पिटारा खोलो जरा 
  • क्या-क्या किये बोलो जरा 

  • हम भी डूब जाएँ, सराबोर हो जाएँ 
  • प्यार का कुछ ऐसा रस घोलो जरा 

  • ऐसा क्या हो गया कोई अंदर से रो गया 
  • तुमने क्या कह दिया था तोलो जरा

  • किसी को कुछ भी कह देने की आदत छोडो
  • अपनी गिरेबान भी टटोलो जरा

  • जो आज भी तने-तनहा है 'कुंदन'
  • उसका किसी साअतें  हो लो जरा

  • -कंचन ज्वाला 'कुंदन'
  •  

कभी शबनम कभी शोले कभी गोले बन गए लोग

  • कभी वाचक कभी पाठक कभी लेखक बन गए लोग
  • कभी मगर कभी मछली कभी मेंढक बन गए लोग
  • कभी रेत कभी खेत कभी लकीर बन गए लोग
  • कभी शराबी कभी संत कभी फ़क़ीर बन गए लोग
  • कभी नेक कभी बद कभी लोभी बन गए लोग
  • कभी आलू कभी अंडा कभी गोभी बन गए लोग
  • कपडे की तरह बदलते हुए चोले बन गए लोग
  • कभी शबनम कभी शोले कभी गोले बन गए लोग
  • - कंचन ज्वाला 'कुंदन'

यह संसार आग की भट्ठी है 'कुंदन'

  • दूर खड़ा कोई राह क्यों रोकता है
  • उन्हें क्या गरज है कि टोकता है
  • तुम चलो अपने राह इतना ही ठीक है
  • कुत्ते की आदत है कुत्ता है भौंकता है
  • अतीत जो आवाज कर करके कहती है
  • जो आया है वो जायेगा, बात यहीं पुख्ता है
  • यह संसार आग की भट्ठी है 'कुंदन'
  • यहाँ जिंदगी हर कोई आग में ही झोंकता है
  • - कंचन ज्वाला 'कुंदन'

छोटी सी फुंसी कभी फोड़ा बन जायेगा सोचा न था

जिंदगी घोड़ा बन जायेगा सोचा न था
जिंदगी भगोड़ा बन जायेगा सोचा न था

हे मालिक ! तेरे बन्दों पर तो रहम कर
सब तेरे हाथों का हथौड़ा बन जायेगा सोचा न था

इस जिंदगी को जहन्नुम कहूँ या जन्नत
हर आदमी को पीटने कोड़ा बन जायेगा सोचा न था

जिन्दगी मेरी मवाद की मानिंद बहती है 'कुंदन'
छोटी सी फुंसी कभी फोड़ा बन जायेगा सोचा न था

- कंचन ज्वाला 'कुंदन'

मंगलवार, 25 अक्टूबर 2016

तुम्हारी नजर का फरेब है , मैं बगुला लगता हूँ

तुम्हें कभी बुरा लगता हूँ, कभी भला लगता हूँ
कभी मुंहफट कभी दोगला लगता हूँ

मैं हंस हूँ मगर, तुम आकर देख लो
तुम्हारी नजर का फरेब है , मैं बगुला लगता हूँ

मैं बीकानेर का सीलबंद मिठाई हूँ
तुम कहती हो बाजारू हूँ, खुला लगता हूँ

अरे मैं तो साबुत-साबुत चना हूँ
फिर क्यों कहती हो ढुलमुला लगता हूँ

-कंचन ज्वाला 'कुंदन'

वह रूह नहीं जिस्म थी... देखा करीब से वो काया बहुत

इधर वो आया, वो आया बहुत
हकीकत कम वो साया बहुत

मैं मुर्ख था उसे मेरा समझा
महज थी वो माया बहुत

मैं अब भी करता हूँ महसूस उसे
हवा ने खुशबु लाया बहुत

उमड़-उमड़ कर,  घुमड़- घुमड़ कर
यादों में वो छाया बहुत

वह रूह नहीं जिस्म थी
देखा करीब से वो काया बहुत

नहीं जानता मैं कोई गीत-गजल
मैंने क्या गुनगुनाया, क्या गाया बहुत

क्यों मैंने पीछा किया
वक्त का हुआ जाया बहुत

हुस्न का ही ये हस्र है जनाब
मैंने वो चोट खाया बहुत


क्या पाया मुझे पता नहीं 'कुंदन'
पर जो भी पाया, मैं पाया बहुत

- कंचन ज्वाला 'कुंदन'

रविवार, 23 अक्टूबर 2016

इंसाँ की बुलंदी

मेरे पैरों में पर आ चुके हैं
मैं आसमां में उड़ता हूँ
ये सोच मन मचलते हैं

यकीं नहीं होगा तुझे
देख मेरे कदम
अब हवा में चलते हैं

मेरी बुलंदी तुझे क्या मालूम
मैंने धरती को
आसमां से जोड़ दिया

देख मैं कितना ऊँचा हूँ
 मेरे सीने कितने चौड़े हैं

मेरे हाथ कितने लंबे हैं
मेरे पैर कितने दौड़े हैं

देख मैंने दुनिया को
एक कर दिया

वसुधैव कुटुम्बकम का
उच्चतम भाव भर दिया

- कंचन ज्वाला 'कुंदन'

यहीं एक तरीका है बंधन से छूटने का

मोह रूपी चने को
जला डालो

ज्ञान रूपी अग्नि में
तपा डालो

फिर कभी न उगेगी
कभी न जनेगी

चाहे जितना भी
खपा डालो

यहीं एक तरीका है
बंधन से छूटने का

जीवन- मरण के चक्र से
 स्वतः ऊपर उठने का

_ कंचन ज्वाला 'कुंदन'

भौंरे से जीना सीखा


मैं तो जा ही रहा था
ये मत पूछना कि कहाँ

किन्तु राह में एक
गुलाब के पौधे को देख

मरने के बुरे विचार से झिझक गया
मैं वहीँ ठिठक गया

देखा की भौंरें आज भी
गुलाब के इर्द- गिर्द मंडरा रहे हैं

क्योंकि उन्हें आशा है
बीता बहार जरूर आएगा

मन फिरा मैं फिर गया
वहीँ से मैं मुड़ गया

और जिंदगी को...
एक नए सिरे से जीने लगा

- कंचन ज्वाला 'कुंदन'

बेचारी ये कविता

मेरी इस कविता के
न हाथ है न पाँव

लड़खड़ाती क़दमों से
खोज रही है छाँव

सुखी नदियों में भी
जरुरत पड़ रही इसे नाव की

ये भटक रही है दर- दर
इसे तलाश अपने गाँव की

तपते इस मौसम में
हारी ये कविता

तड़पकर बिलखती
बेचारी ये कविता

कराहने को भी मुंह नहीं
दुर्भाग्य इसके पास

खड़ी है ये सबके सामने
बनकर जिन्दा लाश

सहानुभूतियाँ भी मेरी बेअसर
इसके  पास नहीं है कान

जलते मरुस्थल में
अधमरी है जान

भटक रही आजाद है
अपने चेहरे की तलाश में....


देख 'कुंदन' इसकी  दुर्दशा
आँखें भी नहीं पास में...

- कंचन ज्वाला 'कुंदन'

तो दलदल भरे संसार से जल्दी उबर जाता

तू सोये रह अहंकार मेरे भीतर ही
तेरी नींद न टूटे तो अच्छा है

लोरियां सुनाते, थपकियाँ देते
सुलाए रख अपने सुपुत्र क्रोध को भी

तेरी नींद उचट जाती है तो क्या करूँ
नींद की गोलियां जो बना नहीं पाया हूँ तेरे लिए

मेरी भूल थी कि मैंने गोलियां मेरे नींद के लिए बनाई
वो भी जो तेरे कारण काम नहीं आई
 मैं मानव होकर भी.....
जो जरुरी है उसे कर नहीं पाता हूँ
अनावश्यक उलझनों में शक्ति खपाता हूँ

काश! काम- क्रोध, मोह- माया, तृष्णा की दवा बना पाता
तो दलदल भरे संसार से जल्दी उबर जाता

- कंचन ज्वाला 'कुंदन' 

यूँ ही उम्रभर मानवी जीवन खोता रहा

कितना किया कोशिश
पर बच न सका

काम- क्रोध लोभ और मोह से
अहंकार- ईर्ष्या, विछोह से

लड़ता रहा बनाकर बहाना
पंथ- प्रान्त, भाषा- वेश को
भुला न सका पल भर
मद- मत्सर, राग- द्वेष को

जलता रहा काम में
अग्नि से तेज

किन्तु होता रहा सदा
अपना चेहरा निस्तेज

मरता रहा क्रोध के कारण
लोभ ने गिराया शत बार अकारण

मोह ने मोहकर बनाया संसारी
काटता रहा बद की बट्टा, बनकर पंसारी

यूँ ही उम्रभर
मानवी जीवन खोता रहा

इस चक्र में फंसकर
तकलीफ सदा ढोता रहा

- कंचन ज्वाला 'कुंदन'

लो थाम लो मशालें भूल सुधारो जीवन गढ़ो

लो थाम लो मशालें
अंधियारे से लड़ो

लो थाम लो मशालें
रास्ता देखो आगे बढ़ो

लो थाम लो मशालें
भूल सुधारो जीवन गढ़ो

लो थाम लो मशालें
समुद्र लाँघो पर्वत चढ़ो

- कंचन ज्वाला 'कुंदन'

लोमड़ी की चालाकी अभी टुटा नहीं है

लोग अब भी नादान हैं
लोग अब भी अंजान हैं

वह सबसे अलग है
सबसे सुपर है

हर प्राणियों से आगे है
हर प्राणियों से ऊपर है

मगर कुत्ते की तरह भौंकना
अभी छूटा नहीं है

लोमड़ी की चालाकी
अभी टुटा नहीं है

बन्दर जैसा लालच
अभी भी बाकी है

फिल्म अभी शुरू नहीं
ये तो पहली झांकी है

गधे का बोझ
अभी गया नहीं है

ये किस्सा पुराना है
नया नहीं है

हाथी सा घमंड
अभी घटा नहीं है

इसीलिए भव का चक्कर
अभी कटा नहीं है

- कंचन ज्वाला 'कुंदन'

मगर हम चाहें तो उड़ सकते हैं

चलना- फिरना तो
विरासत में शामिल है

दौड़ना- भागना भी
हमें हासिल है

मगर हम चाहें तो
उड़ सकते हैं

उड़ने की भी
माद्दा रखते हैं

जो पंखों से उड़े
उन्हें पक्षी कहते हैं

जो हौसलों से उड़े
उन्हें आदमी कहते हैं

   - कंचन ज्वाला 'कुंदन'