शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2019

जब तलुवे चाटने की नौबत आई...

पत्रकारिता में इन दिनों, (पता नहीं ये इन दिनों कब से शुरू हुआ है, मुझे इसकी ज्यादा जानकारी नहीं है) जमकर तलुवे चाटी जा रही है. जैसे ही मेरे साथ चरण चाटने की नौबत आई, मैंने मुख्यधारा से किनारा कर लिया. घरेलु मामलों और मजबूरियों के चलते अब तट पर आ बैठा हूँ. चलो कम से कम नदी के तट पर तो पहुंचा. सोचता हूँ बहुत जल्दी नदी के तट से उठकर सड़क के भीड़ की तरफ चला जाऊँ. मगर पत्रकारिता का बहाव कुछ ऐसा है ही कि इसकी चुलुक जल्दी नहीं छूटती. जो दशकों से इस धारे में बह रहे हैं, ये बात वे ज्यादा भलीभांति जानते हैं. मेरा एक पत्रकार साथी इन दिनों शादी के लिए एक योग्य वधु की तलाश कर रहा है. उन्होंने बताया कि अधिकांश जगह पर उन्हें कई कड़वे सवाल का सामना करना पड़ता है. जैसे- आप पत्रकार क्यों बन गए...?. आपने अब तक सरकारी नौकरी का प्रयास क्यों नहीं किया...? आप कह रहे हैं कि अधिकारियों के बीच आपकी पहुँच है तो उसके दम पर आपने ऊँची छलांग क्यों नहीं लगाई...? मेरे मित्र ने बताया कि एक लड़की के बाप ने तो यहाँ तक कह दिया कि पत्रकार ना रोटी के लायक होता है और ना ही बेटी के लायक. उसके बाप ने उसे कुत्ते की तरह बेइज्जती करके भगा दिया. दोस्त मुझसे कह रहा था कि 3 साल से शादी के लिए लड़की देख रहा हूँ. मगर अफ़सोस... अगली कड़ी शीघ्र ही... - कंचन ज्वाला कुंदन

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