सोमवार, 7 नवंबर 2016

जिस्म हो जिस्म सही, कभी तो लगो रुहानी भी

जिस्म का मंडी कहीं, जिस्म का बाजार भी
अंग-अंग बिकता जिस्म का, जिस्म का औजार भी

जिस्म के लिए कहीं चल गया चाकू, कहीं तलवार भी
गोलियां चलने को आतुर कहीं तमंचे तैयार भी

जिस्म कहीं नजरबंद है तो कहीं बाजारु भी
झमेले-दर-झमेले कहीं जान पे उतारु भी

एकाध कोई आदमी भी समझ ले तो अच्छा है
वरना मैं जानता हूं मेरी बात है बहुत गंवारु भी

जिस्म लूट गया कहीं सरेआम, कहीं लग गया बोली भी
खूब हुआ खून-खराबा कहीं खून की होली भी

कहीं नोंचा गया तंग कपड़े नाबालिग का जिस्म
इत्ते से मन न भरा तो चला धांय-धांय गोली भी

जिस्म बन गया कभी आग तो कभी बाढ़ का पानी भी
जिस्म के कारण जेल में सड़ रही कई जवानी भी

जिस्म हो जिस्म सही, कभी तो लगो रुहानी भी
लिखना चाहता हूं फिर से 'कुंदन' एक मीरा की कहानी भी

- कंचन ज्वाला 'कुंदन'

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें