सोमवार, 7 नवंबर 2016

चीख रहा है हर आदमी आज मुस्कुराते हुए

रो रहा है हर आदमी आज गाते हुए
चीख रहा है हर आदमी आज मुस्कुराते हुए
मैं क्या कहूं मेरे लोकतंत्र का फसाना
मैं झुकना नहीं चाहता शरमाते हुए
मुझे ऐसा लगता है ये मक्खन-मखमली भाषण
जैसे कोड़े बरसा रहें हों कोई फूल बरसाते हुए
थन से खून आते तक दुहा नेताओं ने इसे
फिर लोकतंत्र है कम्बख्त आज भी इठलाते हुए
विकास हो रहा है बेतरतीब मौत के मुहानों पर
कब तक चुप रहोगे 'कुंदन' इस बात को झुठलाते हुए
- कंचन ज्वाला 'कुंदन'

जिस्म हो जिस्म सही, कभी तो लगो रुहानी भी

जिस्म का मंडी कहीं, जिस्म का बाजार भी
अंग-अंग बिकता जिस्म का, जिस्म का औजार भी

जिस्म के लिए कहीं चल गया चाकू, कहीं तलवार भी
गोलियां चलने को आतुर कहीं तमंचे तैयार भी

जिस्म कहीं नजरबंद है तो कहीं बाजारु भी
झमेले-दर-झमेले कहीं जान पे उतारु भी

एकाध कोई आदमी भी समझ ले तो अच्छा है
वरना मैं जानता हूं मेरी बात है बहुत गंवारु भी

जिस्म लूट गया कहीं सरेआम, कहीं लग गया बोली भी
खूब हुआ खून-खराबा कहीं खून की होली भी

कहीं नोंचा गया तंग कपड़े नाबालिग का जिस्म
इत्ते से मन न भरा तो चला धांय-धांय गोली भी

जिस्म बन गया कभी आग तो कभी बाढ़ का पानी भी
जिस्म के कारण जेल में सड़ रही कई जवानी भी

जिस्म हो जिस्म सही, कभी तो लगो रुहानी भी
लिखना चाहता हूं फिर से 'कुंदन' एक मीरा की कहानी भी

- कंचन ज्वाला 'कुंदन'

बुधवार, 2 नवंबर 2016

इसके आगे भी संसार है

बुरे विचारों के इर्द-गिर्द
कामुक संवेगों के आस-पास
हे मानव!
तेरी जीवन घेरे में है
तोड़ दे ये चक्र
और उबर जा
बाहर आ जा
वरना ये काम की लपट
तेज तप्त ज्वाला
तुझे ले डूबेगी-2
एक बार इस कुएं से
बाहर आकर देख

इसके आगे भी संसार है
इसके आगे भी संसार है

- कंचन ज्वाला 'कुंदन'

छण दुखों का , छण सुखों का है गजब संसार भला

छण दुखों का , छण सुखों का
है गजब संसार भला

पर निरंतर ही दुखों में
किसका जीवन है पला

आज गम तो कल ख़ुशी है
प्रकृति नाटक में ढला

चाहे प्रसन्न हों या निराश
हो अँधेरा या प्रकाश

दोनों में ही ढलने की आदत
है मनुज जीवन कला

- कंचन ज्वाला 'कुंदन'