रविवार, 28 अगस्त 2016

सरकारी कारिन्दे और आम परिन्दे


सरकारी कारिन्दे और आम परिन्दे

                               व्यंग्य

'रो रहा है हर परिन्दा गाते हुए
चीख रहा है हर परिन्दा मुस्कुराते हुए।

आजादी को 70 वर्ष पूर्ण हो गया। आजादी स"ाी परिभाषा आज भी अधूरी है। आम आदमी आजादी से आज भी कोसों दूर है। आम आदमी की आजादी ऐसी डगर पर है जहां मील के पत्थर नहीं नहीं लगे हंै। आम आदमी के लिए आजादी का सफर अंतहीन है।
गोरे चले गए तो इन काले नागों और कुटिल सांवरों के गुलाम हो गए। आपको यकीन न हो तो नजर डालिए परिन्दा पहले से Óयादा घायल है, फडफ़ड़ाती परों की विवशता को महसूस कीजिए जनाब! उडऩा चाहते हैं उड़ नहीं पा रहे हैं। पर तो पहले से और Óयादा कतर लिया गया है।

हर शख्श भीतर तक झुलसा हुआ लग रहा है। परिंदा के लिए आजादी के मायने यही है कि वह खुले आकाश में बेरोक-टोक उन्मुक्त उड़ सके। किसी साख पर आकर बैठे तो वह साख पलटकर यह न पूछे कि वह उस पर क्यों बैठ गया।
 डेनों में जान नहीं रही अब पहले की तरह। उडऩे की उत्कंठा भी खत्म होती जा रही है। अब घायल लहूलुहान पड़ा है वह असहाय। आज लोकतंत्र में हर शख्श की हालत कमोबेेश ऐसे ही किसी परिन्दे की तरह हो गया है।
शिक्षक आत्मकक्षा कर हरे हैं। आए दिन जवान खुद को गोली मार रहे हैं  और किसानों की खुदकुशी तो मानो शाश्वत परंपरा जैसी लगने लगी है। कहने का अभिप्राय है कि हर आदमी छटपटा रहा है।
महंगाई आसमान छू रहा है। परिन्दों को दाना मुहैया मुश्किल हो गया है। क्योंकि लोकतंत्र में हर परिन्दों को दाने-दाने के ऊंची दाम चुकाना पड़ता है। गरीब तबको के परिन्दे कुपोषण से मरे जा रहे हैं अमीर तबको के परिन्दे खा-खाकर फुल रहे हैं।
सरकारी कारिन्दे बैठे हैं वातानुकुलित कमरों पर। चल रहे है वातानुकुलित कारों पर। जुगाली कर रहे हैं गरीबों की लड़ाई के लिए संसद में, मंचों में, भाषणों में। उन्हें कोई-फर्क नहीं पड़ता कि कुछ परिन्दों के चप्पल घिस रहे हैं दफ्तर के चक्कर काटते-काटते।
एक परिन्दों की बड़ी झुण्ड में बेरोजगारी की महामारी फैल गई है। उन बेरोजगार परिन्दों  के लिए उनकी डिग्री पुलिसिया थर्डडिग्री साबित हो रही है। अभी पिछले दिनों विकलांग परिन्दे ने बेरोजगार की महामारी के कारण खुद को आग के हवाले कर दिया।
अस्पतालों में डॉक्टर व्हाटसअप में लगे है, कई परिन्दे फडफ़ड़ा रहे हैं, कराह रहे हैं बिस्तर पर। हर जगह सरकारी कारिन्दों की तूती बोल रही है। बेचारे आम परिन्दों को तो दाने भी मयस्सर नहीं हो रहा।

                                                              कंचन